“Feeding the World: A Tribute to Dr. M.S. Swaminathan”
हरित क्रांति के जन्मदाता डा. स्वामीनाथन की रिपोर्ट लागू करना होगी सच्ची श्रद्धांजलि : डा. ढींडसा
सिरसा 08 अक्तूबर 2023: अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक एवं जननायक चौधरी देवीलाल विद्यापीठ सिरसा के महानिदेशक डाॅ. कुलदीप सिंह ढींडसा ने बताया कि प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक मोनकोम्बु संबाशिवन स्वामीनाथन, जिनकी दूरदर्शिता ने 1960 के दशक के अंत में भारत को आयात-निर्भर से खाद्यान्न-सम्पन्न राष्ट्र में बदल दिया था । डा. स्वामीनाथन के जीवन के बारे में बताते हुए डा. कुलदीप सिंह ढींडसा ने कहा कि 7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में एमके संबाशिवन और पार्वती थंगम्मई के घर जन्मे स्वामीनाथन, जिन्हें लोकप्रिय रूप से एमएस कहा जाता है, 1987 में उच्च उपज वाले गेहूं और चावल की खोज के लिए पहले विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता (नोबेल के बराबर) बने।
1960 के दशक में भारत में भुखमरी की स्थिति आ चुकी थी तथा देश को व्यापक अकाल की संभावनाओं का सामना करना पड़ा और पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने तो यहां तक कहा कि केवल एक परमाणु बम ही समस्या का समाधान कर सकता है। लेकिन वैज्ञानिक आश्वस्त थे कि नॉर्मन बोरलॉग की नव विकसित मैक्सिकन बौनी गेहूं की किस्में भारत के खाद्यान्न उत्पादन परिदृश्य को बदल सकती हैं! देशी लंबे गेहूं के डंठल अक्सर अपने वजन के नीचे गिर जाते हैं, उन्ही दिनों स्वामीनाथन ने बोरलॉग को भारत में उनके साथ काम करने के लिए आमंत्रित किया।
डा. ढींडसा ने आगे कहा कि मैक्सिकन किस्मों का पहली बार पैदावार के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में परीक्षण किया गया, जहां स्वामीनाथन उन दिनों में कार्यरत थे। परिणाम नाटकीय थे। जल्द ही, पूरे उत्तर भारत के खेतों में प्रदर्शन आयोजित किए गए और हरित क्रांति का जन्म हुआ। 1968 में भारत की गेहूं की पैदावार 12 मिलियन टन से बढ़कर 17 मिलियन टन हो गई। 1971 तक भारत ने दुनिया को गलत साबित करते हुए खुद को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर घोषित कर दिया। स्वामीनाथन ने भारत और विदेशों में भुखमरी खत्म करने के लिए कई आकर्षक प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया था।
1970 में हरित क्रांति का नेतृत्व करने के लिए बोरलॉग को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने के बाद, उन्होंने सफलता का श्रेय स्वामीनाथन को दिया। स्वामीनाथन के बारे में उनकी जीवनी लेखिका गीता गोपालकृष्णन द्वारा दर्ज एक अल्पज्ञात तथ्य यह भी है कि 1949 में आईएआरआई से स्नातकोत्तर करने के बाद, उनके परिवार ने उन्हें सिविल सेवा परीक्षा देने के लिए राजी कर लिया और उनका चयन आईपीएस के लिए हो गया। लेकिन नियति ने साथ दिया और युवा वैज्ञानिक को नीदरलैंड में आनुवंशिकी का अध्ययन करने के लिए यूनेस्को फेलोशिप प्राप्त हुई जब वह केवल 24 वर्ष के थे।
डा. ढींडसा ने बताया कि 1950 तक, वह ट्रम्पिंगटन में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर के प्लांट ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट में काम करने के लिए इंग्लैंड चले गए और वहां से पीएचडी हासिल की। अक्टूबर 1954 में वह आईएआरआई के वनस्पति विज्ञान प्रभाग में सहायक साइटोजेनेटिकिस्ट लग गए। कालान्तर में उन्होंने कृषि मंत्रालय के प्रधान सचिव और योजना आयोग के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। 1982 में, जब उन्हें इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट के महानिदेशक के पद की पेशकश की गई, तो वह यह पद पाने वाले प्रथम एशियाई थे। सन् 2006 में उनकी अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय कृषि कमीशन की रिपोर्ट कृषि के लिए मील का पत्थर साबित हुई। कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार फसल का मूल्य सम्पूर्ण लागत जमा 50 प्रतिशत लाभ होना चाहिए। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि वह कृषक वर्ग के कल्याण के लिए समर्पित थे। डा. ढींडसा के अनुसार डा. स्वामीनाथन कमीशन की रिर्पाट लागू करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्वाजंली होगी। परिणामस्वरूप ग्रामीण भारत में भी शहरों के समकक्ष सुविधायें मिलने लगेगी तथा किसानों का जीवनस्तर भी सुधर जायेगा।